June 13, 2025

क्या भारत का मुसलमान एक अलग मोहल्ले में रहने के लिए मजबूर है ?

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Updated at : 22 Sep 2024,

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश माना जाता है. दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश है भारत, लेकिन यहां धार्मिक आधार पर आवासीय पृथकता लंबे समय से चिंता का विषय रहा है. कई लोग मुस्लिम समुदाय को बड़े पैमाने पर ‘गेटोआइजेशन’ की बात करते हैं. गेटोआइजेशन का मतलब ऐसे इलाके या बस्ती से है जहां मुख्य रूप से एक ही समुदाय के लोग रहते हैं.

हाल ही में कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस वी श्रीसानंदा ने बेंगलुरु के एक मुस्लिम-बहुल इलाके को ‘मिनी पाकिस्तान’ कहकर संबोधित किया है. जस्टिस सी श्रीसानंदा के विवादित बयान पर  सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया है और जवाब मांगा है.

दरअसल, कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन से जुड़े एक मामले की सुनवाई कर रहे थे. इसी दौरान उन्होंने कहा, “मैसूर रोड फ्लाईओवर की ओर जाओ, हर ऑटो रिक्शा में 10 लोग हैं. मैसूर रोड फ्लाईओवर बाजार से गोरीपाल्या तक का एरिया पाकिस्तान में है, भारत में नहीं. यही हकीकत है. आप कितने भी सख्त अधिकारी वहां भेज दें, उन्हें पीट दिया जाएगा. यह किसी भी चैनल पर नहीं दिखाया जाता.”

कर्नाटक हाईकोर्ट के जज की इस टिप्पणी से विवाद खड़ा हो गया है. इस स्पेशल स्टोरी में गेटोआइजेशन और मुसलमानों की स्थिति समझने की कोशिश करते हैं. साथ ही ये भी जानेंगे कि क्या सही में मुसलमान अलग-थलग रहने के लिए मजबूर है?

भारत में मुसलमानों की स्थिति
हाल ही में हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) 2019-21 के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में मुसलमानों की स्थिति औसत भारतीयों की तुलना में काफी खराब है. मुसलमानों के लिए औसत शिक्षा का स्तर अन्य समुदायों की तुलना में कम है. उदाहरण के लिए, मुसलमानों के घर के पुरुष मुखिया की औसत शिक्षा लगभग दो साल कम है.

शहरी क्षेत्रों में मुसलमानों की शिशु मृत्यु दर पूरे शहरी जनसंख्या के औसत से लगभग 5 फीसदी ज्यादा है. इसका मतलब है कि मुसलमानों के बच्चों की मृत्यु दर अधिक है. पांच साल से छोटे बच्चों में कुपोषण की दर भी मुसलमानों में अधिक है. इसका मतलब है कि इस समुदाय के बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है, जिससे उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ता है.

भारत में आवासीय अलगाव की स्थिति
आवासीय अलगाव का मतलब है कि लोग जाति, धर्म या इनकम के आधार पर अलग-अलग समूहों में रहते हैं. जाति, धर्म या अन्य सामाजिक पहचान के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है, जिसके कारण वे अलग-अलग इलाकों में रहने को मजबूर होते हैं. हाल ही में एक रिसर्च पेपर पब्लिश हुआ है जिसका शीर्षक है “भारत में आवासीय अलगाव और स्थानीय सार्वजनिक सेवाओं तक असमान पहुंच”. यह रिसर्च 2011 से 2013 के बीच एकत्र किए गए आंकड़ों पर आधारित है, जिसमें शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 15 लाख लोग शामिल थे.

रिसर्च के अनुसार, हर चार में से एक मुसलमान और अनुसूचित जाति के लोग ऐसे एरिया में रहते हैं जहां उनके समुदाय की संख्या ज्यादा है. लगभग 26% मुसलमान ऐसे एरिया में रहते हैं जहां 80% से ज्यादा मुसलमान निवासी हैं. इसी तरह, 17% अनुसूचित जाति के नागरिक ऐसे इलाके में रहते हैं जहां 80% से अधिक अनुसूचित जाति के निवासी हैं.

रिसर्च में पाया गया है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में मुसलमानों और अनुसूचित जातियों (दलितों) का आवासीय अलगाव अमेरिका में नस्लीय अलगाव जितना ही है. रिसर्च से यह भी स्पष्ट हुआ है कि 100% मुस्लिम आबादी वाले इलाकों में पाइप्ड पानी की सुविधा मिलने की संभावना 10% कम होती है. ऐसे इलाकों में माध्यमिक स्कूल होने की संभावना 50% कम होती है. अगर एक बच्चा ऐसे इलाके में बड़ा होता है जहां केवल मुसलमान रहते हैं, तो उसकी शिक्षा का स्तर उन बच्चों से औसतन 2 साल कम होता है जो ऐसे इलाके में बड़े होते हैं जहां कोई मुसलमान नहीं हैं.

वडोदरा की हालिया घटना
हाल ही में केरल के वडोदरा में एक घटना हुई जिसमें एक मुस्लिम महिला को एक सरकारी योजना के तहत एक गैर-मुस्लिम बहुल क्षेत्र में घर आवंटित किया गया था. इस पर स्थानीय निवासियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया.

निवासियों का कहना था कि यह क्षेत्र हिंदू-बहुल है और मुसलमानों का यहां रहना उनके लिए समस्या पैदा कर सकता है. उन्होंने मांग की कि महिला को आवंटित घर ‘अवैध’ घोषित किया जाए और किसी दूसरे एरिया में दिया जाए. वहां के लोगों का यह भी कहना था कि वह इस एरिया में इसलिए आए थे क्योंकि यह एक हिंदू बहुल क्षेत्र है और वे नहीं चाहते कि दूसरे धर्म या संस्कृति के लोग उनके साथ रहें.

हिंदू-मुस्लिम विवाद की जड़ क्या है?
इतिहास के जानकार, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार विष्णु शर्मा ने बताया, अंग्रेजों से पहले दिल्ली पर मुगल सुल्तान बहादुर शाह जफर का राज था. 1857 में ब्रिटिश शासन के हु़कूमत में शासन चलने लगा. तब 1857 की क्रांति में जब अंग्रेजों के खिलाफ जंग छिड़ गई थी, तब हिंदुओं ने बहादुर शाह जफर से दोबारा शासन करने की गुजारिश की थी. अंग्रेजों ने देखा कि हिंदू और मुस्लिम साथ आ रहे हैं. तो अंग्रेजों ने पुरानी दिल्ली से सारे मुसलमानों को बाहर कर दिया. करीब 20 साल तक मुसलमान दिल्ली से बाहर रहे.

“जब आजादी का वक्त आया तो मुसलमानों को देश से जाने के लिए कहा गया, हालांकि गांधी जी ने कहा था हम किसी से जाने के लिए नहीं कह रहे. लेकिन उस वक्त स्थिति काफी गंभीर थी. पाकिस्तान से आने वाली ट्रेन में देखा कि सभी सिखों को काट दिया गया. ये देख सिख भी हमलावर हो गए, उन्होंने भी बदला लेने के लिए हमला किया. ऐसे में दिल्ली में रहने वाले मुस्लिम बहुत डरे हुए थे. ऐसे में ये विचार किया गया कि उन मुसलमानों को अलग कॉलोनी/एरिया दे दिया जाना चाहिए. जवाहर लाल नहेरू ने इस बात का समर्थन किया. वहीं सरदार पटेल चाहते थे कि मुस्लिम भी हिंदुओं के साथ मिलकर उनके एरिया में रहें. दोनों को अलग-अलग नहीं करना चाहिए.”

विष्णु शर्मा आगे बताते हैं कि उस वक्त सांप्रदायिक हिंसा के लिए जवाहर लाल नहेरू सिखों को जिम्मेदार मानते थे. पाकिस्तान के पंजाब से आए सिखों के एक दल ने नहेरू जी से मुलाकात करके अपने रहने के लिए दिल्ली से 7 मील दूर एक अलग शहर बसाने की मांग की थी. लेकिन नहेरू जी ने उनकी ये मांग नहीं मानीं. हालांकि फिर बाद दिल्ली से करीब 200 मील दूर चंडीगढ़ बसा. तब इतना भेदभाव और बंटवारा ही आज के विवाद की जड़ है.

“आज एक सामाजिक समस्या ये है कि अगर हिंदू कॉलोनी में कोई मुसलमान आकर बस जाता है तो बाकी हिंदू निवासियों के बीच ये चर्चा होने लगती है कि इनकी संख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है, आखिर हम यहां रहें या न रहें. मुसलमान अक्सर ज्यादा पैसे देकर घर खरीद लेता है. लेकिन फिर आमतौर पर उन्हें उस एरिया में बाकी हिंदुओं के घर सस्ते में मिल जाते हैं, क्योंकि फिर हिंदू उस एरिया में से बाहर निकलता चाहता है. अगर देश की आजादी के समय ही सरदार पटेल की बात मान ली जाती, तो शायद आज ये समस्या पैदा नहीं होती.”

हिंदू-मुस्लिम विवाद की दूसरी वजह
वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली ने भी कहा कि आजादी से पहले मुसलमानों की स्थिति बेहतर थी. उन्होंने बताया, गेटोआइजेशन की समस्या के दो पहलू हैं. पहला पहलू ये है कि आजादी के बाद पढ़ा-लिखा और अमीर मुस्लिम तो पाकिस्तान चले गए. यहां रह जाने वाले ज्यादातर मुस्लिम गरीब और बैकवर्ड क्लास के लोग थे. ये लोग पहले से ही झुग्गी झोपड़ियों या गंदे इलाकों में रहते थे. या ऐसे इलाके में रहते थे जहां जाना कोई पंसद नहीं करता.

“दूसरा पहलू ये है कि 60 के दशक में जब सांप्रदायिक दंगे होना शुरू हुए तो एक दहशत पैदा हुई कि अगर हम मिक्स आबादी में रहेंगे तो दंगे के दौरान रहना मुश्किल है. इसका उदाहरण है 1987 में मेरठ में तीन महीने तक चलने वाले दंगों में मशहूर शायर बशीर बद्र का घर जला दिया गया, जो हिंदू बहुल इलाके शास्त्री नगर में रहते थे. तो लोगों के दिमाग में ये बात बैठ गई है कि ज्यादातर मुसलमान तो विदेशी हैं, पाकिस्तानी हैं, बांग्लादेशी हैं, इन्हें भगा दो.”

वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली ने बताया, “मैं खुद जब दिल्ली के मयूर विहार में रहता था, तब सोसायटी में 300 घर थे और मैं अकेला मुसलमान था. लेकिन मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता था. लेकिन जब 2002 में गुजरात दंगे हुए, तो एक बार दिमाग में ये बात आई कि कल यहां भी कुछ ऐसा हुआ तो कहां जाएंगे. इससे पहले भी हमने 1984 के सिख विरोधी दंगों में देखा था. हिंदुओं और सिखों का अच्छा रिश्ता था, इसके बावजूद 3000 सिख जिंदा जला दिए गए थे.”

क्या मुसलमान अलग रहने के लिए मजबूर है?
इस सवाल का जवाब देते हुए वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली का कहना है कि मुसलमानों को अलग इलाके में रहने के लिए मजबूर किया जाता है. क्योंकि सवाल यह है कि जब दंगे होंगे, तो हमारी जान कैसे बचेगी. एक पढ़ा लिखा मुस्लिम सिर्फ अपनी जान बचाने के लिए ही दूसरे इलाके में जाकर रहता है. दिल्ली में हाल ही 2020 में दंगे हुए थे. कोई भी मुसलमान खुशी से अपने धर्म, जाति, समुदाय के बीच नहीं रहना चाहता है. मजबूरी में उन्हें अलग रहना पड़ता है.

वहीं पत्रकार विष्णु शर्मा कहते हैं कि मुस्लिम लड़के जब किसी दूसरे शहर नौकरी या पढ़ाई के लिए जाते हैं तो उन्हें घर ढूंढने में अक्सर दिक्कत होती है. इसकी मुख्य वजह ये भी है कि बहुत से जैन परिवारों में मांस नहीं खाया जाता. इसलिए वह लोग मुस्लिम को घर नहीं देना चाहते. लेकिन ऐसा ही इसके उलट भी होता है. हालांकि सब लोग एक जैसे नहीं होते. बहुत से लोग समझदार भी हैं.

विष्णु शर्मा अपना एक किस्सा भी सुनाया. वह कहते हैं कि हाल ही में वह एक निजी कार्यक्रम के लिए वायनाड गए थे. वहां उन्होंने देखा कि सड़क पर दोनों तरफ लंबी दूरी तक लाइन से हरे झंडे लगे थे, जबकि तब कोई त्योहार क मौसम नहीं था. क्योंकि पाकिस्तान का झंडा भी हरा ही है, तो ऐसा कंफ्यूजन हो रहा था कि कहीं हम पाकिस्तान में तो नहीं आ गए. शिमला-मनाली से भी ज्यादा खूबसूरत वायनाड जिला है, लेकिन आज उसे एक इस्लामिक स्टेट बना दिया गया है. वहां किसी की हिम्मत नहीं है कि कोई दूसरा झंडा फहरा दिया जाए. भारत में ऐसी बहुत-सी जगह हैं.

मुसलमान एक ही मोहल्ले में क्यों बसना चाहते हैं?
इस पर हमने वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद शोएब से भी विस्तार से चर्चा की. उन्होंने बताया, गेटोआइजेशन आज की बात नहीं है. ये सदियों से चला आ रहा है. हर शहर, जिले और गांव में ऐसी जगह मिल जाएंगी जहां एक ही समुदाय के लोग ज्यादातर रहते हैं. इतना ही नहीं उन एरिया के नाम भी उसी हिसाब से रख दिए जाते हैं. जैसे- अकबरपुर, जहांगीरपुरी, शिवगंज, खुदागंज, राम विहार आदि.

मोहम्मद शोएब ने कहा, ‘दिल्ली में वैसे सभी इलाकों में मुस्लिम रहते हैं. लेकिन कुछ इलाके खासतौर से मुस्लिम बहुल इलाके जाने जाते हैं. जैसे- जामिया, ओखला, शाहीन बाग, जाफराबाद, सीलमपुर. यहां हर तरह के मुसलमान हैं, कम पढ़े लिखे भी और बहुत कामयाब मुस्लिम भी. ये आम बात है कि इंसान अपने तरह के लोगों के बीच ज्यादा कंफर्ट महसूस करता है. इसकी मुख्य वजह सांप्रदायिक दंगे होते हैं. फिर जब वह व्यक्ति उसी इलाके में रहने का आदि हो जाता है. वह खुद को सिक्योर फील करता है. ऐसा ही दूसरे समुदाय के लोगों के साथ होता है. हिंदु, सिख, बंगाली लोग भी अपने समुदाय के साथ रहना पसंद करते हैं.’

“पहले समय में ऐसा होता था कि दिल्ली में ऑटो वाले भजनपुरा जैसे कुछ एरिया में जाने में मना कर देते थे. वह कहते थे कि वहां गुंडे रहते हैं, नहीं जाएंगे. हालांकि अब ऐसा नहीं होता है. भले ही एक समुदाय के लोग आपस में लड़ते हों, लेकिन फिर भी वह अपने समुदाय के बीच रहना ही पसंद करते हैं. ये किसी भी सोसायटी के लिए अच्छा नहीं है. ऐसे उस सोसायटी के लोग उस तेजी से तरक्की नहीं करते. सोसायटी में ये बंटवारे की मानसिकता खत्म करने में कई पीढ़ियां निकल जाएंगी या शायद अब खत्म न भी हो.”

मोहम्मद शोएब ने भी ये बात कही कि आमतौर पर मुसलमानों को अच्छी सोसायटी में किराये पर घर नहीं मिलते हैं. इसलिए मजबूरी में उन्हें अपने समुदाय वाले इलाके में जाकर ही बसना पड़ता है. कुछ लोग मुसलमानों को अच्छा मानते हैं, तो कुछ बुरा. ये निर्भर करता है कि उनका पिछला अनुभव कैसा रहा या उन्हें क्या सिखाया पढ़ाया गया. इस तरह उन लोगों की एक ओपिनियन बन जाती है और फिर इसे बदलने में समय लगता है.

 

Credit: ABP

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