युवा गायिका मैथिली ठाकुर के लोकगीतों से गुंजायमान हुआ विश्वरंग

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Updated Date: Sat, 19 Nov 2022

भोपाल। लोकगीतों के गायन से लोगों के दिलों में राज करने वाली मैथिली ठाकुर ने आज विश्वरंग में अपने गीतों से हजारों श्रोताओं को सराबोर किया। एक के बाद एक भजन और लोकगीतों की प्रस्तुति से श्रोता झूमते नजर आए। मैथिली ने रागों का ऐसा समा बांधा कि विश्वरंग की शाम ऐतिहासिक बन गई। विश्वरंग में देर रात तक मैथिली ठाकुर के लोकगीतों का रंग गूंजता रहा। इसमें उन्होंने शुरुआत छाप तिलक सब छीनी मो से नैना मिलाइके… से कर हर किसी को झूमने पर मजबूर किया। इसके बाद उनकी नजरों ने कुछ ऐसा जादू किया…, तुम्हे दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी मोहब्बत की राह में आकर तो देखो… से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया।

विश्वरंग में पहुंचे फिल्म एक्टर मनोज पाहवा ने अनुभव साझा करते हुए “रंगमंच और सिनेमा पर की बात

भोपाल। टैगोर अंतर्राष्ट्रीय साहित्य एवम् कला महोत्सव, विश्वरंग का छठवाँ दिवस रंगमंच, सिनेमा, युद्ध और निर्वासन जैसे विषयों के नाम रहा। इस दौरान फिल्म अभिनेता मनोज पाहवा “रंगमंच और सिनेमा” विषय पर आयोजित एक प्रमुख सत्र में शामिल हुए। यहां इला जोशी ने उनकी रंगमंच यात्रा को जाना, जिसमें श्री मनोज पाहवा ने बताया किस प्रकार रामलीला में लक्ष्मण के किरदार ने उन्हें मोहल्ले में पहचान दी और फिर थिएटर के करीब ले आया। वहीं रंगमंच से सिनेमा तक की यात्रा और फिर रंगमंच से जुड़ाव पर मनोज पाहवा बताते हैं कि मुंबई जाने से पहले उनकी शादी हो चुकी थी और बच्चे भी थे। सर्वाइव करना था, सो कॉमेडी किरदार करने लगा और कई सीरियल्स में एक्टिंग की। मुंबई शिफ्ट होने के बाद रंगमंच के स्टेज पर नहीं चढ़ा था। रंगमंच भूल गया था लेकिन जब नसीरूद्दीन शाह मिले तो उन्होंने मुझे रंगमंच करने की सलाह दी। मैं उस समय रंगमंच को लेकर गंभीर नहीं था लेकिन नसीर साहब ने मुझे एक दिन स्क्रिप्ट लाकर दी तो दोबारा रंगमंच से जुड़ गया। वहीं सुश्री इला ने श्री मनोज पाहवा से फिल्म के अलग-अलग फॉर्मेट पर चर्चा की। जिसमें श्री मनोज पाहवा ने बताया कि उन्होंने एड-फिल्म, फिल्म, वेव सीरिज के साथ कई अलग-अलग फिल्मों के फॉर्मेट में काम किया। काम करते– करते कई लोगों से सीखने का मौका मिला। तकनीक पर ध्यान देता गया और आज हर फॉर्मेट पर काम करता हूँ।

बिना घोषणा के अपना प्रतिशोध ले रही है प्रकृति

प्रथम वैचारिक सत्र में ‘युद्ध और निर्वासन : विश्व परिप्रेक्ष्य’ विषय पर संवाद संपन्न हुआ। सत्र के प्रमुख वक्ताओं में साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित नंदकिशोर आचार्य, अग्निशेखर, नोमान शौक, अनूप सेठी और मनोहर बाथम शामिल रहें, वहीं कार्यक्रम की अध्यक्षता अच्युतानंद मिश्र ने की। सत्र का संचालन कुमार अनुपम ने किया। इस दौरान वक्ता नंद कुमार आचार्य ने अपने उद्बोधन में युद्ध को प्रकृति से जोड़ते हुए कहा कि जिस तरह से मानव प्रकृति को नष्ट कर रहा है उसी तरह एक दिन प्रकृति भी मनुष्य को नष्ट कर देगी। और प्रकृति बिना घोषणा के अपना प्रतिशोध ले रही है। यह मानव के खिलाफ प्रतियुद्ध है। अच्युतानंद मिश्र ने अपने वक्तव्य में कहा कि दुनियां का कोई भी युद्ध मनुष्यता के खिलाफ ही लड़ा जाता है। वहीं, साहित्यकार अग्निशेखर निर्वासन को लेकर कहते हैं, “लिख लो, मेरा पता भी खो गया है। क्योंकि निर्वासन एक पता खोना ही तो है…”। वहीं नोमान शौक ने जीशान साहिल के एक नज़्म कहते हुए कहा, “जंग के दिनों में मुहब्बत आसान हो जाती है और जिंदगी मुश्किल। सत्र में विश्वरंग संवाद त्रैमासिक पत्रिका का लोकार्पण भी किया।

शिक्षा और रंगमंच पर हुआ सार्थक संवाद

एक महतवपूर्ण सत्र ‘शिक्षा और रंगमंच” पर भी संपन्न हुआ। सत्र में मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक श्री संजय उपध्याय, फिल्म कला निर्देशक श्री जयंत देशमुख, टैगोर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक श्री मनोज नायर और मशहूर रंग कर्मी और अभिनेता श्री आलोक चटर्जी मौजूद थे। श्री नायर ने इस दौरान अपनी रंग कर्म के शुरुआती दौर को याद करते हुए कहा कि रंगमंच अपने आप में शिक्षा ही है। यह जीवन की शिक्षा है। सत्र में बातचीत के दौरान आलोक जी ने कहा कि रंगकर्मी को अपना बौद्धिक विकास भी निरंतर करते रहना चाहिए अन्यथा सब व्यर्थ है। श्री संजय ने कहा कि रंगमंच की शिक्षा मनुष्य को एक इमानदार मनुष्य बनाती है। श्री देशमुख ने बच्चों को कविता और कहानी सुनाते रहना चहिए। साहित्य से परिचय बच्चों को बचपन में ही करा दिया जाना चाहिए।

मंगलाचरण में महादेवी वर्मा की रचना की हुई प्रस्तुति

इससे पहले विश्व रंग के छंठवे दिन की शुरुआत परम्परानुसार मंगलाचरण से हुई। भक्ति के स्वर में युवा ध्रुपद गायिका धानी गुंदेचा और जान्हवी ने मिलकर छायावाद की अप्रतिम कवियत्री महादेवी वर्मा की रचना ‘यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो और तुलसीदास की रचना ‘चित्रकूट अति विचित्र’ सुबह की सभा की आध्यात्मिक चेतना प्रदान की। पखावज पर निखिल चोपड़ा और ज्ञानेश्वर ने संगत दी।

नये सिरे से है इतिहास लेखन की आवश्यकता: अरविंद मोहन

”इतिहास को पश्चिमी नजरिये से मुक्त होना चाहिये। आज बहुत सारे ऐसे विषय हैं जिस पर नये सिरे से इतिहास लेखन की आवश्यकता है। लेकिन इतिहास लेखन के लिए यह बेहद जरूरत है कि हम यूरोप बनाम हिन्दुस्तान, अगड़े बनाम पिछड़े जैसी सोच से मुक्त होकर निष्पक्ष भाव से उसे लिखें।” ये उद्गार प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, अनुवादक श्री अरविंद मोहन ने विश्वरंग के अंतर्गत आयोजित सत्र ‘सृजनात्मक इतिहास लेखन की जरूरत’ विषय पर अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किये। सत्र में अपने विचार रखते हुए अन्य अतिथियों में श्री हितेन्द्र पटेल जी ने कहा कि इतिहास को पुन: निर्भीकता से लिखा जाना चाहिये। श्री श्योराज सिंह बैचेन ने दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों के इतिहास लेखन पर बल दिया। श्री देवेन्द्र चौबे जी ने कहा कि इतिहास लिखने के साथ इतिहास कैसे लिखा जाता है, यह भी देखा जाना चाहिये।

प्रवासी भारतीय रचनाकारों ने किया कविता पाठ

प्रवासी साहित्य (1) कविता पाठ सत्र में ब्रिटेन के जय वर्मा ने अपनी रचना “चल निकल चलें तेरे गुलिस्तां से, कौन जानता है कि राह किधर ले जाए…”, न्यूजीलैंड के रोहित सिंह हैप्पी ने “उसने जन्म दिया मुझे, उसने जीवनदान, दो माओं का लाल मैं ये मेरी पहचान…” का पाठ किया। इसके बाद शिवांगी शुक्ला ने “खिड़की पर बैठी हूं मन को समझाकर, बाबा दफ्तर से जल्दी मैं घर आकर जोड़ रही हूं बीती सारी कड़ियां…” का पाठ किया। नीदरलैंड के रामा तक्षक ने शिकायत पाती शीर्षक से “शिकायत न करो अब कुछ तो समझो, तुम मेरी खामोशी के अंधेरों में और न घसीटों…” का पाठ किया। वहीं, अमेरिका के अनूप भार्गव, अनिल जोशी, अमेरिका की विनिता तिवारी और सिंगापुर के विनोद दुबे ने भी रचना पाठ किया।

प्रवासी साहित्य सत्र में हुआ गद्य रचना पाठ

सत्र की पहली वक्ता के रूप में बोलते हुए नीदरलैंड की ऋतु शर्मा जी ने एक कविता से अपनी बात शुरू की, बाद में एक कहानी का अंश पाठ किया जिसमें एक छोटी लड़की के कुत्ते के खोने का वर्णन है। रूस से आई श्रीमती प्रगति टिपणीस ने एक आलेख प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने रूस में हिंदी अनुवाद, हिंदी भाषा और संस्कृति की सिथति आदि पर प्रकाश डाला। लक्जमबर्ग से आए श्री मनीष पांडे ने आपबीती के अंदाज में विदेश के अपने अनुभव और एहसास साझा किये। इसके अलावा सत्र में अमेरिका से मीरा सिंह, चीन के विवेक मणि त्रिपाठी, अमेरिका निवासी डॉ. नीलम जैन शामिल रहे। सत्र के अध्यक्ष श्री सुरेन्द्र गंभीर ने अमेरिका हिंदी के शिक्षण – प्रशिक्षण तथा शोध और वहां होने वाले कार्यक्रमों पर रोशनी डाली।

लोक आस्था और पर्यावरण

प्रकृति हमारे ही भीतर तो है। हमारी भीतर नम्रता की नदी है। अहंकार का पर्वत है। वसंत का मन है। स्थिरता की पृथ्वी है। हम सब प्रकृति में परिवर्तित होने का गुण सीख जाएं तो सारी दुविधाएं और समस्याएँ अपने आप समाप्त हो जाएँगी… ये बातें डॉ. श्याम सुंदर दुबे ने विश्व रंग के सत्र ‘लोक आस्था और पर्यावरण’ में कही। इसी सत्र में अपने वक्तव्य देने के लिए डॉ. दुबे के साथ ही पंकज पंकज चतुर्वेदी, डॉ. साधना बलवटे शामिल हुए और वरिष्ठ ललित निबन्धकार डॉ श्रीराम परिहार जी ने की। परिहार जी ने अध्यक्षता की कमान सम्हाली। श्री परिहार ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि लोक से ही जीवन जीने की समझ विकसित की जा सकती है और लोक से ही कृतज्ञता का भाव पैदा होता है। प्रकृति के बीच रहना है तो निश्छल सरल और निष्पक्ष होना होगा।

डॉक्टर तभी मरीज़ का दर्द समझता है, जब वह कविता जीता है–डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी

“पोएट्री थेरैपी” कार्यक्रम की अध्यक्षता हिंदी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान और साहित्यकार, डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने की। उनके साथ पोएट्री थेरैपी पर बातचीत करने के लिये डॉ विनय कुमार मंच पर मौजूद रहे। यह सत्र पूरी तरह कविताओं और उनकी जीवन में चिकित्सीय भूमिका पर केन्द्रित था। ज्ञान चतुर्वेदी ने थेरैपी पर बात करते हुए कहा कि चिकित्सा के क्षेत्र में कविता या काव्य की उल्लेखनीय भूमिका है। एक डॉक्टर तभी मरीज़ का दर्द समझता है, जब वह कविता जीता हो।

आदिवासी साहित्य एवं कला महोत्सव में हुए वैचारिक सत्र

सत्र को संबोधित करते हु डॉ. गंगासहाय मीणा ने कहा कि आदिवासियों की अपनी एक अलग दुनिया है। उनकी समृद्ध साहित्यिक परपंरा है जिसे तथाकथित सभ्य समाज बहुत नहीं जानता है। हम अपनी बनी बनाई धारणा के आधार पर आदिवासियों के विषय में अपना नजरिया बना लेते हैं। आदिवासी साहित्य को जानने के लिए हमें अपनी धारणाओं को तोड़ना होगा। आपने आगे कहा कि अन्य भाषाओं की तरह ही आदिवासी साहित्य को पहचान मिले और सम्मान मिले। जब कोई साहित्यकार अपनी स्टैंडर्ड लैंग्वेज को छोड़कर किसी दूसरी भाषा में लिखता है तो लोग उसे दूसरे नजरिए से देखता है। युवा साहित्यकार राघवेंद्र माधु ने एक कविता के द्वारा बताया कि कैसे धीरे धीरे आदिवासी साहित्य एंव कला विलुप्त होती जा रही हैं। उनका कहना है कि इसे बचाने के लिए हमें उनकी कल्चरल डिपॉजेट्री बनानी चाहिए।
सत्र का संचालन श्री प्रशांत सोनी ने किया। आभार संजय सिंह राठौर ने माना।

जनजातीय साहित्य और भारतीय साहित्यिक परपंराएँ

इस सत्र में डॉ. हीरा मीणा ने आदिवासी साहित्य को सहेजने के लिये जनजातीय भाषाओं को बचाने पर जोर दिया। डॉ. जयंती भाई चौधरी ने आजादी के अमृत महोत्सव में जनजातीय साहित्य के लोकव्यापीकरण की योजना को लागू करने पर विचार व्यक्त किये। प्रो. किशोर गायकवाड़ ने गोंड चित्रकारी के माध्यम से आदिवासी परंपरा से रूबरू कराते हुए कहा कि जनजातीय चित्रकारी के हरेक चित्र में एक संपूर्ण रचना मौजूद रहती है। सत्र का संचालन श्री शुभम ने किया। आभार संजय सिंह राठौर ने माना।

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