राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित फिल्म ‘दादा लखमी’ हुई स्क्रीन, फिल्म के निर्माता, निर्देशक और अभिनेता यशपाल शर्मा रहे मौजूद

मध्य प्रदेश, मनोरंजन, मुख्य समाचार

14 jan 2023,

भोपाल। भारतीय भाषाओं के प्रसार और प्रचार की यात्रा में विश्वरंग द्वारा एक खास पहल करते हुए प्रसिद्ध निर्माता, निर्देशक और अभिनेता यशपाल शर्मा की फिल्म ‘दादा लखमी’ की विशेष स्क्रीनिंग कैपिटल मॉल स्थित आईनॉक्स में की गई। पंडित लखमी चंद, हरियाणवी भाषा के एक प्रसिद्ध कवि व लोक कलाकार थे। हरियाणवी रागनी व सांग में उनके उल्लेखनीय योगदान के कारण उन्हें “सूर्य-कवि” कहा जाता है। उन्हें “हरियाणा का कालिदास” भी कहा जाता है। उनके नाम पर साहित्य के क्षेत्र में कई पुरस्कार दिए जाते हैं। भले ही वे गरीबी एवं शिक्षा संसाधनों के अभावों के बीच वे स्कूल नहीं जा सके, लेकिन ज्ञान के मामले में वे पढ़े-लिखे लोगों को भी मात देते थे। फिल्म ‘दादा लखमी’ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी है। इस फिल्म को माननीय राष्ट्रपति द्वारा ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ से सर्वोत्तम हरियाणवी फिल्म के रूप में पुरस्कृत किया गया है। इसके अतिरिक्त 68 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं। इसकी विशेष ऑनलाइन स्क्रीनिंग कांस फेस्टिवल 2021 में भी की जा चुकी है।

भोपाल में इस विशेष स्क्रीनिंग की खासियत रही कि इस दौरान फिल्म के निर्देशक और मुख्य कलाकार यशपाल शर्मा भी मौजूद रहे और उन्होंने शहर के गणमान्य नागरिकों के साथ मिलकर फिल्म का आनंद लिया। इससे पहले उन्होंने स्वयं थिएटर में दर्शकों से हाथ मिलाकर उनका स्वागत किया। इस दौरान विश्वरंग के निदेशक और वरिष्ठ संस्कृति कर्मी संतोष कुमार चौबे, विश्वरंग की सह-निदेशक अदिति चतुर्वेदी वत्स एवं अन्य अतिथि भी मौजूद रहे। फिल्म स्क्रीनिंग के अंत में यशपाल शर्मा दर्शकों से मिले और फिल्म से जुड़े कई अनुभवों को भी साझा किया।

इस मौके पर मीडिया से बात करते हुए फिल्म निर्देशक और अभिनेता यशपाल शर्मा ने कहा कि हर कलाकार का दायित्व होता है कि वो अपनी मातृभूमि के लिए कुछ अच्छा करे। मैं अपनी कला के माध्यम से हरियाणा की एक ऐसी शख्सियत जिनका जिक्र शायद युवा पीढ़ी करना भूल रही थी, उनके योगदान को सामने लाने के लिए मेरी तरफ से यह फिल्म एक श्रृद्धांजलि है। और देश में क्षेत्रीय सिनेमा बहुत अच्छा कार्य कर रहा है। नई कहानियों को कह रहा है। यही अवसर है अपनी कहानियों को पर्दे पर लाने का। इसी कड़ी में मेरी ओर से यह प्रयास किया गया है।

इसके अलावा उन्होंने क्षेत्रीय सिनेमा के बढ़ते महत्व पर बात करते हुए कहा कि अब तक हरियाणवी सिनेमा पूरे देश तक उस प्रकार नहीं पहुंचा जैसे अन्य क्षेत्रीय सिनेमा की पहुंच हुई है। परंतु ‘दादा लखमी’ फिल्म पूरे देश में पहुंच रही है, सिर्फ यही नहीं विदेशों में इसने अपना लोहा मनवाया है। यह फिल्म हरियाणा की कहानियों और व्यक्तित्वों की प्रभावशीलता को भी दर्शाता है।

वहीं, विश्वरंग से जुड़ने की बात पर यशपाल शर्मा ने कहा कि विश्वरंग भारतीय संस्कृति के वैश्विक स्तर पर प्रचार – प्रसार का बहुत अच्छा कार्य कर रहा है। भारतीय भाषाओं को भी आगे बढ़ाने के कार्य में विश्वरंग ने कई पहल की हैं। मुझे खुशी है कि रबीन्द्रनाथ टैगोर यूनिवर्सिटी और विश्वरंग के सहयोग से इस फिल्म की स्क्रीनिंग यहां हुई और उनके इस अभियान में मै और मेरी फिल्म भी शामिल हो गई।

इस मौके पर विश्वरंग के निदेशक संतोष कुमार चौबे ने कहा कि विश्वरंग हिंदी और भारतीय भाषाओं को वैश्विक स्तर पर लाने का काम हमेशा से कर रहा है। अब लोगों का भी दायित्व है कि वे भी आगे आएं और अपनी भाषा संस्कृति और अपने कलाकारों को आगे बढ़ाते हुए सहयोग करें। अब यह किसी और के भरोसे बैठ कर नहीं हो सकता। हमें खुद इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। आगे भी विश्वरंग साहित्य कला और संस्कृति से जुड़ी पहल के साथ जुड़ा रहेगा।

फिल्म ‘दादा लखमी’ की कहानी

सात-आठ वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपनी मधुर व सुरीली आवाज से लोगों का मन मोह लिया। ग्रामीण पंडित मान सिंह ने उनके पिता पंडित उदमी राम से इस बारे में बात की और उनकी सहमति के बाद उन्होंने बालक लखमी चन्द को अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया। इसके बाद बालक लखमी चन्द अपने गुरु से ज्ञान लेने में तल्लीन हो गए और असीम लगन व कठिन परिश्रम से वे निखरते चले गए।

कुछ ही समय में लोग उनकी गायन प्रतिभा और सुरीली आवाज के कायल हो गए। अब उनकी रूचि ‘साँग’ सीखने की हो गई। ‘साँग’ की कला सीखने के लिए लखमी चन्द कुण्डल निवासी सोहन लाल के बेड़े में शामिल हो गए। अडिग लगन व मेहनत के बल पर पाँच साल में ही उन्होंने ‘साँग’ की बारीकियाँ सीख लीं। उनके अभिनय एवं नाच का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। उनके अंग-अंग का मटकना, मनोहारी अदाएं, हाथों की मुद्राएं, कमर की लचक और गजब की फूर्ती का जादू हर किसी को मदहोश कर डालता था।

उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बड़े-बड़े धुरन्धर कलाकार उनके बेड़े में शामिल होने लगे और पंडित लखमी चन्द देखते ही देखते ‘साँग-सम्राट’ के रूप में विख्यात होते चले गए। ‘साँग’ के दौरान साज-आवाज-अन्दाज आदि किसी भी मामले में किसी तरह की ढील अथवा लापरवाही उन्हें बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी। उन्होंने अपने बेड़े में एक से बढ़कर एक कलाकार रखे और ‘साँग’ कला को नई ऐतिहासिक बुलन्दियों पर पहुंचाया। फिर कुछ परिस्थतियों की वजह से वे गुमनामी के अंधेरों में चले गए। और लंबी बीमारी के उपरान्त 17 जुलाई, 1945 की सुबह उनका देहान्त हो गया।

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